पिशी डाकिनी संस्कृतमग्ना (कविश्रेष्ठ विंदा करंदीकरांच्या पिशी मावशीच्या काही कवितांचा संस्कृत भावानुवाद)
मांडणीसाठी विशेष आभार: संहिता-अदिती जोशी
स्वीय प्रस्तावना | |
---|---|
कितेक दशकांच्या झोपेतुन, | बहुदशकानां गभीर शयना- |
पिशी मावशी जागी झाली, | दुत्थिता हि डाकिनी पिशी सा। |
जागी होऊन हर्षोन्मीलित | मृतयोन्यामप्यमृततत्त्वा- |
रसिक-हृदातून पिंगा घाली।।१।। | दमृतवाण्या पुनर्मिलति सा।। |
. | |
अफाट प्रतिभेच्या अर'विन्दा'- | शोभनार’विन्दा’कार-चितौ |
-तुनी प्रकटली 'कृत्ये'मधुनी, | ‘कृत्या’यामाविर्भूतेयम्। |
आज पुन्हा संजीवन लाभुन | पुन: प्रकटिता मत्त: खलु |
डोकावित ही अधून-मधुनी ।।२।। | सिसृक्षा-संजीविनिकलितेयम्।। |
. | |
मात्र टिकोनी आहे बर का | परन्तु रसिका जानन्तु च यत्- |
तिचा तोच तो खट्याळ नखरा! | अद्याप्येव तथैवात्यक्ता:। |
प्राकृतातुनी संस्कृत होऊन | बाल्यास्पद-लीलास्तस्यास्ता: |
पुन्हा तोच आनंद दे खरा।।३।। | संस्कृतायिता: प्राकृतमत्ता:।। |
पिशीमावशीच्या पोथ्या | पिशी डाकिन्या: पांडूलिप्यध्ययनम् |
---|---|
मध्याह्नीच्या नंतर रात्री | सायंकाले रात्रावथवा- |
मावळल्यावर चंद्र कधीही, | पीयूषांशौ क्वचिदस्तमिते |
पिशी मावशी चष्मा घालून | उपलोचनधृक्पिशी डाकिनी |
जुन्यापुराण्या पोथ्या पाही | पाण्डूलिप्यध्ययने रमते। |
. | |
रोज वाचते वेताळविजय | 'वेताल-विजयकथां' पठति सा |
अन् 'भस्मासूरप्रताप' नंतर, | भस्मासुरप्रतापं पठति |
कधी भयासुरमाहात्म्य, आणिक, | क्वचित्पठति रावणलीला: सा |
'रावणलीला' वेळ असे तर | भयासुरस्य माहात्म्यं पठति। |
. | |
त्यातील पहिल्या पोथीवरती | तस्या प्राचीनतमे ग्रन्थे |
जुन्यापुराणी कवटी असते, | 'पेपरवेट'वद्धि तत्स्थं तत् |
पेपरवेटच म्हणाल, ते पण | सहस्रवर्षीयं नृ-कपालं |
अंधारातून खुदकन हसते | घोरे तमसि च हसति सुविकटं।। |
. | |
अंधारातील कोनाड्यातून | घोरतमसि सा पिशी मातृका |
पिशी मावशी रापत राहे, | ग्रंथान्वेषणकार्यरता स्यात्, |
जवळपास ती आल्यानंतर, | ‘अत्रायमहं’ पुस्तकं तदा, |
पोथी म्हणते इथेच आहे | वदति हि भयदं चान्यत्किं स्यात्।। |
. | |
डोळे बघती खूप खोलसे, | लोलायितौ पुटन्तौ ओष्ठौ; |
ओघळलेले ओठ हालती, | गभीर नेत्राभ्यां तद् पठनम् |
उच्चाराविण चाळे वाचन | नाट्यमनुच्चारितपठनस्य |
आणिक डुलणे मागे-पुढती | तनुरपि तद्दोलायितमखिलम्।। |
. | |
पिशी मावशी चष्मा घालुन | उपलोचनधृक्पिशीमातृका |
पोथी वाचे, अंधाराचा | आरात्रिदिनं पठति पुस्तकम्, |
तिला न होतो त्रास कधीही | ज्ञानतेजसि च तस्मिन् तस्या- |
त्या चष्म्याला कसल्या काचा? | उपनेत्रं खलु काचविहीनम्।। |
पिशीमावशीचे घर | पिशी डाकिन्या: गृहम् |
---|---|
मसणवटीच्या राईमध्ये | श्मशानमार्गे वृक्षवेष्टिते- |
पडक्या घुमटीच्या वाटेवर, | दग्धमृतस्तटाके गूढं| |
भेंडवताच्या डोहापाशी | भग्नगृहस्य समीपे वीथौ |
पिशीमावशीचे आहे घर | पिशिडाकिन्या: गृहं निगूढं|। |
. | |
पिशी मावशीच्या पायाशी | 'पिशिडाकिन्या अभितश्चैक: |
मनीमांजरी दिसेल काळी | कृष्ण-बिडाल: सदाऽहिंसक: |
ती न कधीही खाते उंदिर | अमूषकान्न: केवलं क्वचित् |
फक्त खातसे सफेद पाली | बुभूक्षितेऽत्ति च श्वेतगोधिक:|| |
. | |
दिसेल दारावरी पिंजरा | द्वारे पश्यतु शुकपंजरस्थ- |
पिंजऱ्यात ना दिसेल राघू | काकस्तत्राहो न शुकस्तत् |
परंतु त्यातून एक कावळा | मंजुलस्वरे हसति स “ख्यू:...ख्यू:” |
हसेल ख्ये ख्ये आणिक खू खू | तथा विकटलीलासु विपश्चित्|| |
. | |
पिशी मावशी म्हणते त्याला | पिशी वदति,”भो काकम्भट्ट |
"काकंभडजी भोगा आता | कर्मफलं च भुनक्तु ह्यभिन्नम्, |
पुन्हा दक्षिणा मिळण्यासाठी | दक्षिणेप्सया सेवितं खलु, |
श्राद्धाचेही पुन्हा जेवता?" | त्वयाऽपवित्रं तच्छ्राद्धान्नम्|| |
. | |
आणि मनीला कैसे म्हणते | पिशी पृच्छति च कृष्णबिडालम्-; |
''या मनुताई कशास वळवळ? | अपि तेऽसह्यं बिडालजन्म| |
चोरलात ना कंठा मागे, | कुतस्त्वया तद्विहितं पूर्वं |
आता भोगा; हे त्याचे फळ" | दोषास्पदं हि चौर्यं कर्म|| |
. | |
पिशी मावशी एकलकोंडी | पिशी वसति सा एकाकिनी खलु |
तिच्या घरी ना नोकरचाकर | गृहं च तस्या: चित्रमभृत्यम्, |
मुसळे देती कांडून पोहे | अहो कुत: पिष्टं, चित्रं तत्- |
जाते दळते पीठ भराभर | मुसलं करोति कंडनकृत्यम् || |
संस्कृतायिता रम्या पिशी डाकिनी!!!������
ReplyDeleteरम्या एषा डाकिनी
ReplyDeleteआपण आणखी काही संस्कृत रचना केली आहे का?
रम्या एषा डाकिनी
ReplyDeleteआपण आणखी काही संस्कृत रचना केली आहे का?
हो, बऱ्यापैकी.
Deleteआहा वाचता आलं बुवा. लेक लाडकी असली की बाप जगासाठी देखील काय काय प्रस्तुत प्रसूत करतो. तेही अगदी लीलया. अभिनंदन आणि धन्यवादही.
ReplyDelete